भारतीय सेना की कार्रवाई ‘ऑपरेशन ब्लूस्टार
सिख धर्म के सबसे पावन स्थल स्वर्ण मंदिर परिसर में भारतीय सेना की कार्रवाई ‘ऑपरेशन ब्लूस्टार” से पंजाब की समस्या विश्व के प्रमुख समाचार माध्यमों की सुर्खियों में आई।
पंजाब समस्या की शुरुआत 1970 के दशक के अंत में अकाली राजनीति में खींचतान और अकालियों की पंजाब संबंधित मांगों को लेकर शुरू हुई थी। 1978 में पंजाब की मांगों पर अकाली दल ने आनंदपुर साहिब प्रस्ताव पारित किया।
इसके मूल प्रस्ताव में सुझाया गया था कि भारत की केंद्र सरकार का केवल रक्षा, विदेश नीति, संचार और मुद्रा पर अधिकार हो जबकि अन्य सब विषयों पर राज्यों के पास पूर्ण अधिकार हों। वे ये भी चाहते थे कि भारत के उत्तरी क्षेत्र में उन्हें स्वायत्तता मिले।
और अकालियों की मांगें ज़ोर पकड़ने लगीं…
अकालियों की पंजाब संबंधित मांगें ज़ोर पकड़ने लगीं। अकालियों की प्रमुख मांगें थीं-चंडीगढ़ पंजाब की ही राजधानी हो, पंजाबी भाषी क्षेत्र पंजाब में शामिल किए जाएं, नदियों के पानी के मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय की राय ली जाए।
विश्लेषकों के मुताबिक इंदिरा गांधी की सरकार ने तीन बार मसला सुलझाने के लिए बात की थी। इसके साथ वे यह भी चाहते थे कि ‘नहरों के हेडवर्क्स’ और पन-बिजली बनाने के मूलभूत ढाँचे का प्रबंधन पंजाब के पास हो, फ़ौज में भर्ती क़ाबिलियत के आधार पर हो और इसमें सिखों की भर्ती पर लगी कथित सीमा हटाई जाए और अखिल भारतीय गुरुद्वारा क़ानून बनाया जाए।
इस बीच अकाली कार्यकर्ताओं और निरंकारियों के बीच अमृतसर में 13 अप्रैल 1978 को हिंसक झड़प हुई। इस घटना को पंजाब में चरमपंथ की शुरुआत के तौर पर देखा जाता है। विश्लेषक मानते हैं कि शुरुआत में सिखों पर अकाली दल के प्रभाव को कम करने के लिए कांग्रेस ने सिख प्रचारक जरनैल सिंह भिंडरावाले को परोक्ष रूप से प्रोत्साहन दिया।
उनका मानना है कि कांग्रेस का मकसद था कि अकालियों के सामने सिखों की मांगें उठाने वाले किसी संगठन या व्यक्ति को खड़ा किया जाए जो उनको मिलने वाले समर्थन में सेंध लगा सके।
केंद्र सरकार पर उठने लगे थे सवाल…
केंद्र सरकार पर उठे सवाल
अकाली दल भारत की राजनीतिक मुख्यधारा में रहकर पंजाब और सिखों की मांगों की बात कर रहा था, लेकिन उसका रवैया ढुलमुल माना जाता था। उधर इन्हीं मुद्दों पर जरनैल सिंह भिंडरावाले ने कड़ा रुख़ अपनाते हुए केंद्र सरकार को दोषी ठहराना शुरू किया।
वे विवादास्पद राजनीतिक मुद्दों और धर्म और उसकी मर्यादा पर नियमित तौर पर भाषण देने लगे। जहां बहुत से लोग उनके भाषणों को भड़काऊ मानते थे वहीं अन्य लोगों का कहना था कि वे सिखों की जायज़ मांगों और धार्मिक मसलों की बात कर रहे हैं।
तीन जून 1984 तक भारतीय सेना स्वर्ण मंदिर परिसर को घेर चुकी थी। पंजाब में हिंसक घटनाएं बढ़ने लगीं। सितंबर 1981 में हिंद समाचार-पंजाब केसरी अख़बार समूह के संपादक लाला जगत नारायण की हत्या हुई। जालंधर, तरन तारन, अमृतसर, फ़रीदकोट और गुरदासपुर में हिंसक घटनाएं हुईं और कई लोगों की जान गई। (साभार: बीबीसी)
और फिर पंजाब में हिंसा का दौर शुरू हो गया…
भिंडरावाले के ख़िलाफ़ लगातार हिंसक गतिविधियों को बढ़ावा देने के आरोप लगने लगे, लेकिन कांग्रेस सरकार के वरिष्ठ प्रतिनिधियों ने इस बारे में कम से कम दो बार इन घटनाओं में उनका हाथ न होने की बात कही।
कांग्रेस पर लगातार ये आरोप लगते रहे कि उसकी केंद्र और राज्य सरकारों ने भिंडरावाले के ख़िलाफ़ कार्रवाई करना तो दूर उन्हें रोकने की भी कोई कोशिश नहीं की। सितंबर 1981 में ही भिंडरावाले ने महता चौक गुरुद्वारे के सामने गिरफ़्तारी दी, लेकिन वहां एकत्र भीड़ और पुलिस के बीच गोलीबारी हुई और ग्यारह व्यक्तियों की मौत हो गई।
पंजाब में हिंसा का दौर शुरू हो गया। लोगों को भिंडरावाले के साथ जुड़ता देख अकाली दल के नेताओं ने भी भिंडरावाले के समर्थन में बयान देने शुरू कर दिए। अक्तूबर 1981 में भिंडरावाले को रिहा कर दिया गया।
बंदूकधारियों ने पहली बार हिंदुओं को मारा…
लगातार जारी था विरोध
1982 में वे चौक महता गुरुद्वारा छोड़ पहले स्वर्ण मंदिर परिसर में गुरु नानक निवास और इसके बाद सिखों की सर्वोच्च धार्मिक संस्था अकाल तख्त से अपने विचार व्यक्त करने लगे। अकाली दल ने सतलुज-यमुना लिंक नहर बनाने के ख़िलाफ़ जुलाई 1982 में अपना ‘नहर रोको मोर्चा’ छेड़ रखा था, जिसके तहत अकाली कार्यकर्ता लगातार गिरफ़्तारियां दे रहे थे।
लेकिन स्वर्ण मंदिर परिसर से भिंडरावाले ने अपने साथी ऑल इंडिया सिख स्टूडेंट्स फ़ैडरेशन के प्रमुख अमरीक सिंह की रिहाई को लेकर नए मोर्चे या अभियान शुरू किया। अकालियों ने अपने मोर्चे का भिंडरावाले के मोर्चे में विलय कर दिया और धर्म युद्ध मोर्चे के तहत गिरफ़्तारियां देने लगे। उन्होंने भिंडरावाले की मांगें भी अपना लीं।
उधर पंजाब में हिंसक घटनाएं लगातार बढ़ती चली गईं। यहां तक कि पटियाला के पुलिस उपमहानिरीक्षक के दफ़्तर में भी बम विस्फोट हुआ। पंजाब के उस समय के मुख्यमंत्री दरबारा सिंह पर हमला हुआ। फिर अप्रैल 1983 में एक अभूतपूर्व घटना घटी। पंजाब पुलिस के उपमहानिरीक्षक एएस अटवाल की दिन दहाड़े स्वर्ण मंदिर परिसर में गोली मारकर तब हत्या कर दी गई जब वे वहाँ माथा टेक कर बाहर निकल रहे थे।
पुलिस के मनोबल की दशा इससे पता चलती है कि मामले की जांच करते हुए बाद में पुलिस महानिदेशक केपीएस गिल ने पाया कि उस समय घटनास्थल के आसपास लगभग सौ पुलिसकर्मी थे और उनमें से आधे हथियारों से लैस थे। लेकिन अटवाल का शव इस घटना के करीब दो घंटे बाद तक वहीं पड़ा रहा।
कुछ ही महीने बाद जब पंजाब रोडवेज़ की एक बस में घुसे बंदूकधारियों ने पहली बार हिंदुओं को मार डाला तो इंदिरा गांधी सरकार ने पंजाब में दरबारा सिंह की कांग्रेस सरकार को बर्खास्त कर दिया और राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया।